‘बालिका वधु’ की दादी-सा. ‘सात फेरे’ की ‘भाबो’. ‘कुछ नए रिश्ते’ की मधु. इन सारे नामों से मन में एक ही चेहरा उभर आता है. बात हो रही है वरिष्ठ एक्ट्रेस सुरेखा सीकरी की, जो अब अमित रविंदरनाथ शर्मा की आनेवाली फ़िल्म ‘बधाई हो’ में नज़र आएंगी.
टीवी सीरीयलों में नेगेटिव रोल करने लिए मशहूर सुरेखा ‘क़िस्सा कुर्सी का’, ‘काली सलवार’, ‘रेनकोट’ जैसी तमाम फ़िल्में कर चुकीं हैं. दो बार नैशनल अवॉर्ड और एक बार संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जीत चुकीं हैं. अपने करियर के चालीस सालों में उन्होंने हर तरह के महिला किरदार देखे हैं. फ़िल्म में महिलाओं का ट्रीटमेंट देखा है. ज़माने के साथ उन्हें बदलते देखा है. देखा है कैसे समाज की मानसिकता बड़े परदे पर झलकती है. इन्हीं सब की वजह से 73 साल की सुरेखा कहतीं हैं कि एक ऐक्ट्रेस की उम्र बढ़ने के साथ साथ उसे अच्छे रोल मिलने बंद हो जाते हैं.
‘फ़िल्मकारों और लेखकों को थोड़ी मेहनत करने की ज़रूरत है.’ वह कहतीं हैं ‘वयस्क ऐक्ट्रेसेज़ के लिए उन्हें ढंग के रोल्ज़ लिखने चाहिएं. वैसे, फ़िल्म इंडस्ट्री भी आख़िर हमारे समाज का ही हिस्सा है. हमारे समाज की तरह यहां भी पुरुष प्रधानता है. इसलिए सारे बढ़ियां रोल ऐक्टर्ज़ को ही मिल जाते हैं. एक ज़माना था जब फ़िल्मों में मेरी उम्र की औरतों और फ़र्निचर में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं था. मगर अभी ज़माना अलग है. ज़माने के साथ हमें भी तो बदलना है.’
बॉलीवुड में ऐसा हमेशा से ऐसा ही होता आया है. वयस्क ऐक्ट्रेसेज़ के लिए कोई दिलचस्प, ओरिजिनल, याद रखने लायक रोल नहीं है. चालीस पार करते ही उन्हें सफ़ेद साड़ी में लपेटकर हीरो की मां बना दिया जाता है. हर फ़िल्म में फिर उन्हें वही चीज़ें करनी पड़ती हैं. आरती की थाली लिए हीरो का इंतज़ार. उसके घर से निकलने पर ग्लिसरीन के आंसू बहाना. गुंडों द्वारा उठा लिए जाने पर बेटे के आने की प्रार्थना. कभी कभी उसके आने से पहले ही मर जाना. इन किरदारों में न कोई ओरिजिनैलिटी है, न कोई मज़ा. जहां साठ-सत्तर साल के अनिल कपूर और मिथुन आज भी भड़कीले कपड़ों में डान्स करते नज़र आते हैं, उनसे छोटी अभिनेत्रियां कई सालों से मां का रोल कर रहीं हैं.
टीवी की दुनिया में वही प्रॉब्लम है. बूढ़ी ऐक्ट्रेसेज़ दादी-नानी ही बनने लायक समझी जातीं हैं. इस पर भी सुरेखा कहतीं हैं, ‘सीरीयलों में दादियां या तो विलेन बनकर पूरे घर का जीना हराम करतीं हैं, या एक ‘आदर्श’ औरत बनी सबकी सेवा करती नज़र आती हैं. यह रोल्ज़ कार्ड्बॉर्ड कटआऊट की तरह नीरस हैं. इनमें कुछ इंट्रेस्टिंग नहीं है. पिछले कुछ सालों में चीज़ें बदलीं हैं, पर ज़्यादा नहीं. मेरे पास रोज़ स्क्रिप्ट आते हैं पर उनमें मुझे कोई अच्छा रोल नहीं नज़र आता.’
फ़िल्म और टीवी में महिलाओं को, ख़ासकर बड़ी उम्र की महिलाओं को अपने में परिपूर्ण इंसानों के तौर पर नहीं दिखाया जाता. उन्हें हमेशा किसी मर्द के साथ उनके रिश्ते के आधार पर डिफ़ाइन किया जाता है. वह मर्द या तो बेटा है या पति. उनकी अपनी कोई आवाज़ नहीं है. कोई ज़िंदगी नहीं है. पिछले ही कुछ सालों में ‘लिप्स्टिक अंडर माई बुर्क़ा’ और‘अज्जी’ जैसी कुछ फ़िल्में आईं हैं जिन्होंने वयस्क महिलाओं को आवाज़ दी है. पर्सनैलिटी दी है. उम्मीद है कि ऐसी और भी फ़िल्में आएंगी और सीरीयल दिखेंगे जिनमें मां या दादी के बाहर भी बड़ी उम्र की औरतों का कोई रोल होगा.
Source - News 18